सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
ऐसे में 'गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी' के शिष्य होने के नाते हमारा क्या कर्तव्य है? यही कि हम सभी इस 21वीं सदी के कलियुगी देवासुर-संग्राम में उनके सृजन सेनानी बन सकें। पर ऐसा कब होगा? इसके लिए पहले हमें अपने भीतरी असुरों को मारना होगा।
देव और असुर, दोनों प्रजापति की संतानें हैं, अर्थात दैवी प्रवृत्तियां और आसुरी प्रवृत्तियां, दोनों इसी जीवात्मा में वास करती हैं। जब इन दोनों सत्ताओं में युद्ध हुआ, तो दैवीय पक्ष ने आदिनाम का सहारा लिया। ताकि वह असुरों को हरा सके।
परंतु यह आदिनाम कहाँ बसता है? किसी भी इंद्रिय व मन को पाप-मुक्त न देखते हुए देवों ने प्राणों में समाए आदिनाम की उपासना यानि सुमिरन किया। तब वह अज्ञानासुर आदिनाम के समक्ष पहुँचकर ऐसा ध्वस्त हुआ, जैसे पत्थर से टकराने पर मिट्टी का ढेला नष्ट हो जाता है। और ऐसा सुमिरन करने वाला उपासक एक अडिग चट्टान के समान होता है, जिसपर कोई ऐंद्रिक या मनोभावनात्मक असुर आक्रमण नहीं कर सकता।तब उस साधक की प्रत्येक इंद्रिय पापमुक्त हो जाती है।
जब तक हमारी चेतना इंद्रियों व उनके विषयों तक केन्द्रित रहती है, तब तक असत्य और अज्ञान का साम्राज्य बना रहता है। पर जब जीवन में पूर्ण गुरु आते हैं, वे ब्रह्मज्ञान की दीक्षा द्वारा हमारी सुषुम्ना नाड़ी को जागृत करते हैं और इस नाड़ी में आदिनाम की तरंगें प्रकट करते हैं। ब्रह्मज्ञान के इस सूक्ष्म सुमिरन-विज्ञान के प्रभाव से साधक के अंदर दैवीय गुण विकसित होने लगते हैं। यही मूल है, युगपुरुष के सृजन सेनानी और जागृत यंत्र बनने का।जब हम आंतरिक असुर को हरा देंगे तब धरा पर व्याप्त आसुरी शक्तियों से युद्ध करने में भी सक्षम होंगे।साथ ही विजयश्री वरण करने में सहायक सिद्ध हो पाएंगे।
तो बताइए साधकों, क्या आप तैयार हैं??
**ओम् श्री आशुतोषाय नम:**
"श्री रमेश जी"
