सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जी'काया मंदिर मांहि प्यारे, आतम ज्योतिर्लिंग रहै।
सब मिली पूजा करे देव की, जन्म जन्म के पाप गहै।।'
अर्थात ज्योतिर्लिंग कहीं
बाहर नहीं हैं। इस काया रूपी मंदिर के भीतर हैं। जो इस आंतरिक लिंग देव की पूजा करता है, उसके जन्म जन्म के पाप कट जाते हैं।
'परात्मन: सदा लिंगं केवलं रजतप्रभम्।
ज्ञानात्मकं सर्वगतं योगिनां हृदि संस्थितम्।। '
(कूर्मपुराण, 11/94)
अर्थात ज्योति रूप,
आनंद स्वरूप, अद्वितीय, निरंजन ज्ञानात्मक और सर्वत्र व्याप्त परम लिंग
मनुष्यों के हृदय में अवस्थित रहता है।
महाभारत काल में अश्वत्थामा ने ऋषि व्यासजी के समक्ष अपनी हार का कारण पूछा। व्यासजी ने कहा - तुमने महादेव की मूर्ति की पूजा की थी। स्थूल रूप से भगवान शिव का पूजन किया था। पर वहीं श्री कृष्ण ने अपने अंतर्जगत में प्रकट शिव के ज्योति स्वरूप पर ध्यान लगाया था। तत्व से जानकर महादेव की साधना की थी। तो फिर श्री कृष्ण को विजय कैसे न मिलती।
निष्कर्षत:भगवान शिव के बाहरी पूजन से कई
गुणा महिमाशाली है - अंतर्जगत में ज्योतिर्लिंग रूप में उनका दर्शन कर साधना करना।
परंतु यह दर्शन और साधना कब और कैसे संभव हो पाती है उपरोक्त कथा का अवलोकन करें।
जब ब्रह्मा जी और विष्णु जी जैसी महान विभूतियां भी उस परम ज्योतिर्लिंग का पार पाने में असमर्थ रहीं, तब वहां एक ऋषि प्रकट हुए। गुरु रूप में इन ऋषि ने ही ब्रह्मा जी और विष्णु जी को मार्ग दर्शाया। उस प्रकट ज्योति स्तम्भ का तत्वज्ञान प्रदान किया। ठीक इसी प्रकार यदि हम शिव को तत्व से जानना चाहते हैं - तो हमें भी एक पुर्ण गुरु की शरण में जाना होगा। सद्गुरु द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना होगा।
अत: स्पष्ट है कि तीर्थ यात्रा का वास्तविक प्रयोजन भी संतों महापुरुषों द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर आत्मा का उद्धार करना है। गुरु की महिमा को किसी भक्त ने कुछ इस प्रकार दर्शाया -
"गुरु ही सार, गुरु आधार,
गुरु जीवन की धुरी है।
आरंभ होती भक्ति यात्रा गुरु से,
होती गुरु से पूरी है।।
तत्ववेता गुरु ही, शिवलिंग का रहस्य बताएँ।
घट भीतर ही ज्योतिर्लिंग को प्रकट कर दिखाएँ।।
भक्ति शिव शंकर की,
गुरु बिना अधूरी है।
आरम्भ होती भक्ति यात्रा गुरु से,
होती गुरु से पूरी है।।"
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
'श्री रमेश जी'
7651806463.
