शिष्य का पुरुषार्थ और गुरु कृपा अवगुणों का अंत कर देता है।

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                              श्री आर सी सिंह जी 

भारतीय संस्कृति के प्राण उसकी आध्यात्मिकता में बसते हैं। साधक का अंतर्मन, जिसमें अज्ञानता का घोर अंधकार छाया होता है, सद्गुरु कृपा से ब्रह्मज्ञान का दीपक जलते ही उसमें प्रकाश फैल जाता है। अज्ञान तम तिरोहित होता है। साधक अपने अंतर्जगत में अलौकिक दीप व आतिशबाजियों का आनंद लेता है।

    लेकिन क्या सिर्फ दिव्य अनुभूतियों का साक्षात्कार कर लेना ही अध्यात्म का ध्येय होता है? नहीं, बिल्कुल नहीं। ये अंतरानुभूतियाँ तो अध्यात्म पथ का आरंभ मात्र हैं। मंजिल तो 'ईश्वर मिलन' है, जो इस पथ पर आगे बढ़ने से ही मिलती है।

   गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी कहा करते हैं - "ईश दर्शन ईश मिलन नहीं होता है। यदि बूँद सागर को देख ले, तो वह सागर नहीं बन जाती। इसके लिए उसे प्रयास करना होगा, सागर में जाकर मिलना होगा।" वस्तुतः साधक के साध्य में मिल जाने का सफर - अपूर्णता से पूर्णता की यात्रा है, ईश दर्शन से ईश मिलन की राह है, 'मृत्योर्मातृम गमय' की अभिव्यंजना है।

    सम्पूर्ण प्रकृति व हमारी प्रवृत्ति सत्व, रज, तम गुणों से प्रभावित रहती है। यहाँ तक कि व्यक्ति के भव बंधन का कारण भी ये तीन गुण ही हैं।

"सत्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसंभवा:।

निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।" (गीता 14/5)

   अर्थात प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज, तम- ये तीन गुण ही अविकारी आत्मा को देह बंधन में बाँधते हैं।

     यही नहीं, जब साधक गुरु ज्ञान प्राप्त कर साधना पथ पर आगे बढ़ना चाहता है, तो उसके और ईश्वर के मध्य भी ये त्रिगुण ही सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं।

       इसलिए यदि ईश दर्शन से ईश मिलन का आनंद लेना है, तो त्रिगुणातीत होना ही पड़ेगा। इन तीन गुणों का समूल अंत करना ही होगा। श्री कृष्ण कहते हैं -

"गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोधिगच्छति।' (गीता 14/9)

   अर्थात जब साधक इन तीनों गुणों का उल्लंघन कर मेरे तत्वरूप को जानता है, तो वह मुझ गुणरहित परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

'श्री रमेश जी' 7897659218.

Post a Comment

Previous Post Next Post