*पुरुषार्थ का बल गुरु को समर्पित कर देना चाहिए।*

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                                श्री आर सी सिंह जी 

परम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा त्रिगुण हैं (सत्व, रज, तम)। इन त्रिगुणों से प्रेरित होकर हम जीवन भर न तो इन्द्रियों को संयमित कर पाते हैं और न ही अपने मन के विकारों का शमन। हमारी चेतना की दिव्यता अन्त:करण से निष्कासित ही रहती है।

    ज्ञान-पथ का पथिक साधक जब स्वयं को इन सबल त्रिगुणों के सामने अक्षम पाता है, तो पूर्ण सद्गुरु उसके लिए देवाधिदेव शिव की भूमिका निभाते हैं-

'यो गुरु स शिव: प्रोक्तो, 

य: शिव: सगुरु: स्मृत:।'

(गुरुगीता- 20)                                          

क्योंकि इस मृत्युलोक में क्रोधाजित जितेन्द्रिय यदि कोई है, तो वे तत्वज्ञानी श्री गुरुदेव ही हुआ करते हैं। 'गुरुर्देवो महेश्वर:' - इस वेदवाक्य को सार्थक करते हुए सद्गुरु अपने साधक शिष्य के त्रिगुणों का नाश करने को उद्यत हो जाते हैं।

    नि:सन्देह, शिष्य का पुरुषार्थ और गुरु की कृपा मिलकर त्रिगुणों का अंत करने में सक्षम हैं। परंतु इस समीकरण में, पुरुषार्थ कर्ता नहीं है, अपितु कृपा कर्ता है। यदि साधक कर्ता भाव से युक्त हो, स्वयं को आगे रखकर और कृपा को मात्र सहयोगी मान कर लड़ता है - तो वह मुँह की खाता है। कबीर जी कहते हैं -

"जब तक साधक स्वयं को, अपनी मैं को ताकता रहता है और दूसरों को दिखाता रहता है, तब तक उसके सारे तीर खाली ही चले जाते हैं। हर प्रयास विफल हो जाता है।"

     अत: अपने पुरुषार्थ का बल गुरु को समर्पित कर देना चाहिए। अपने मन, बुद्धि, चित्त अर्थात अस्तित्व को सद्गुरु के हाथों का यंत्र बनाकर उपलब्ध हो जाना चाहिए। ऐसे में निश्चित ही विजयश्री साधक का वरण करेगी और त्रिगुणों के त्रिपुरासुरों का अंत होगा ही होगा।

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

'श्री रमेश जी'

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