सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीमनुष्य ही सत्संग करने का अधिकारी है। किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर निरंतर सत्संग करते रहने से ही हमारे अंत:करण में शुभ संस्कार बनने लगते हैं। और बने हुए अशुभ संस्कार धीरे-धीरे मिटने लगते हैं, जिससे हमारे नये होने वाले कर्मों की सकामता में कमजोरी आने लगती है। और कर्मों की निष्कामता आ जाने से भक्ति का बीज अंकुरित होता है, जिससे हमारी आध्यात्मिक यात्रा गति पकड़ लेती है।
विवेक शक्ति केवल मनुष्य योनि में ही जागती है। और जबतक मनुष्य की विवेक शक्ति 100% जाग नहीं है जाती तबतक मनुष्य में कम अधिक मात्रा में सुख भोगने की भौतिक इच्छाएं बनी ही रहती हैं। इसलिए मनुष्य योनि पाकर किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर अधिक से अधिक सत्संग करते रहने का लक्ष्य बनाये रखना चाहिए। क्योंकि सत्संग करने से ही विवेक शक्ति जागती है।
जब जीवन में दूसरे जीवों को पदार्थ खिलाने या देने में सुख की अनुभूति होने लगे और लेने में दुख व शर्म महसूस होने लगे। तो समझ लेना चाहिए कि हमारे सतोगुण में वृद्धि हो रही है। अर्थात हमारी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत हो गई है। अन्यथा साधारण मनुष्य सदा लेने की फिराक में ही अपना सारा जीवन बिता देता है। अर्थात मनुष्य भौतिक यात्राओं में ही विचरण करता रहता है।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
'श्री रमेश जी'
