सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीहमारे शास्त्रों में परमात्मा से जुड़ने के लिए आरंभ में विभिन्न प्रकार के धार्मिक कर्मकांड बताए गये हैं, जिनको भले ही मनुष्य लोभ से करे या भय से करे। इनको करने का केवल इतना ही लाभ है कि हम पाप कर्मों से बच जाते हैं। यह एक आरंभिक प्रक्रिया है। जैसे हम अपने छोटे बच्चों को प्ले स्कूल या नर्सरी की कक्षा में भेज देते हैं, ताकि बच्चा कुछ सीखने लगे और घर पर करने वाली शैतानियों से भी बच जाए। फिर आगे की एक लम्बी पढ़ने-लिखने की यात्रा जैसे प्राइमरी स्कूल, हाई स्कूल, फिर कॉलेज आदि में पढ़ना होता है। ताकि जीवन में एक सफल नौकरी रूपी मंजिल को पाया जा सके। लेकिन अक्सर ऐसा देखा गया है कि धार्मिक दुनिया में अधिकांश लोग मरते दम तक इन्हीं कर्मकांडों में ही उलझ कर यहीं पर रुके रह जाते हैं और आगे की आध्यात्मिक उन्नति से वंचित रह जाते हैं।
सभी मनुष्यों के तन की कुछ आवश्यकताएँ होती हैं, जिनके लिए साधारण मेहनत मजदूरी ही करनी होती है। लेकिन जब हमारे मन में आवश्यकता से अधिक की चाह इच्छा बन जाती है, फिर इन इच्छाओं के बढ़ने का नाम ही लोभ है। अक्सर ऐसा देखा गया है कि लोभ के रहते हुए क्रोध का आना एक आम बात है। क्रोध में अक्सर मनुष्य अपने शब्दों पर नियंत्रण नहीं रख पाता, जिसके फलस्वरूप आज समाज में आए दिन हिंसा अधिक देखी जा रही है। अर्थात हमें अपने जीवन में आरंभ से ही अपनी आवश्यकताओं को भी सीमित रखना चाहिए, ताकि इच्छा का बीज जन्म ही ना ले।
भौतिक प्रकृति की 84 लाख योनियों में केवल मनुष्य योनि में ही परमात्मा को जाना समझा जा सकता है। लेकिन अधिकांश मनुष्यों को सत्संग के अभाव में यह दिखने वाला संसार ही आकर्षक लगता है। और इसी कारण मनुष्य अपने जीवन में मरते दम तक यह निर्णय ही नहीं ले पाता है कि वह संसार को दूर से हेलो हाय करे या फिर सांसारिक भोग विलासों में लिप्त रहे। जब जीवन में संत आते हैं तब सब समझ में आ जाता है। इसलिए किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर निरंतर ध्यान साधना व सत्संग करते रहने का स्वभाव बनाना चाहिए। ताकि परमात्मा का हमें पूर्ण रूप से तत्वज्ञान हो जाए और हम परमात्मा की शरणागत हो जायें।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"