सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीमहात्मा बुद्ध ने एक गूढ़ विषय की चर्चा की है।उसका कहीं न कहीं, कभी न कभी थोड़ा या अधिक हम साधकों पर प्रभाव पड़ता ही है। यह सूत्र 'आलस्य पर आधारित है... ध्यान साधना करने का आलस्य! सेवा कार्य करने का आलस्य! अनुशासन में ढलने का आलस्य! इस सूत्र में कई प्रकार के बहानों का वर्णन है, जिसकी आड़ में एक साधक आलस्य का शिकार बन जाता है।
महात्मा बुद्ध कहते हैं-- "जिस लक्ष्य को प्राप्त करने आया था, उसे पाए बिना; जिस गंतव्य तक पहुँचने आया था, वहाँ पहुँचे बिना; जिस अनुभव का साक्षी बनने आया था, उसका साक्षात्कार किए बिना- साधक निष्क्रियता का चयन कर लेता है।निःसंदेह, ऐसा निष्क्रिय साधक, अपने आलस्य के कारण, खाली हाथ ही रह जाता है।"
इसके उपरांत महात्मा बुद्ध एक दूसरा दृष्टिकोण भी रखते हैं। वह पक्ष जिसमें निष्क्रियता, नकारात्मकता, आलस्य इत्यादि का कोई स्थान नहीं; अपितु जिसमें ऊर्जा है, संकल्प है, सकारात्मकता है। एक अच्छा साधक अपने मन के बहानों को अपनी सूझ बूझ से खदेड़ देता है।आलस्य चाहे कितनी ही चतुराई से उसे अपने वश में करने की कोशिश क्यों न कर ले; वह अपने विवेक से आलस्य को मुँह की खाने पर विवश कर देता है।
महात्मा बुद्ध इस सकारात्मक विवरण के दौरान कुछ पंक्तियाँ दोहराते हैं-- "जो साधक मन की समस्त चालों को हरा देते हैं; वे फिर उस लक्ष्य की ओर तेज गति से अग्रसर हो जाते हैं, जिसे पाने के लिए वे इस मार्ग पर चले थे। उस गंतव्य को छूने के लिए आगे बढ़ जाते हैं, जिस तक पहुँचने के लिए उन्होंने इस पथ का चयन किया था। उस परम अनुभव के वे साक्षी बन जाते हैं, जिसके वे अभिलाषी थे।"
इस सूत्र से यह स्पष्ट है कि एक ही परिस्थिति को दोनों दिशाओं में मोड़ा जा सकता है- गिरावट की ओर भी और उत्थान की ओर भी। सबकुछ हमारे निर्णय पर निर्भर करता है। हम चाहें तो, मन के तर्कों को स्वीकार कर निष्क्रियता और आलस्य का दामन पकड़ सकते हैं।हम चाहें तो, विवेक से मन के तर्कों को काटकर निष्क्रियता और आलस्य को धूल चटा सकते हैं।
निःसंदेह, साधक की विजय तो दूसरे विकल्प का चयन करने में ही है।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"
