सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीप्रेम' कितना छोटा सा शब्द है न? परन्तु अर्थ इतना विराट कि कुदरत को भी कैद कर ले। जहाँ दुनिया वाले पूरी जिंदगी मोह की मोटी मोटी
जंजीरों से संसार समेटने में लगा देते हैं, फिर भी कुछ हासिल नहीं होता। वहीं एक भक्त प्रेम की पतली सी डोरी से भगवान को बाँधकर सब पा जाता है। और कमाल की बात तो देखिये... ईश्वर, जिन्हें बंधन स्वीकार्य नहीं, वे भी सदा इस डोरी में बंधने को लालायित रहते हैं। फिर भले ही अपने प्रेमी भक्त के लिए उन्हें अपने ही बनाए नियम क्यों न बदलने पड़ें। जड़ को चेतन या चेतन को जड़ ही क्यों न करना पड़े, वे क्षण भर की भी देरी नहीं करते।
"है मीठा प्रेमाभक्ति का बंधन, प्रभु बंधने को आतुर रहते हैं,
भक्तों पर आई विपदा को खुद आगे आकर सहते हैं।
सृष्टि के नियम बदल जाते, जड़ चेतन, चेतन जड़ होता।
'मैं तो निज भक्तों का दास' प्रभु स्वयं ये मुख से कहते हैं।"
अतः हमें सच्चे हृदय से भगवान की सेवा करनी चाहिए। हर श्वांस उन्हीं की आराधना करें।प्रभु की कृपा को अपने पुरुषार्थ का आधार दें।हमारे जीवन का एक ही लक्ष्य होना चाहिए कि भगवान की सेवा कर उनका प्रेम प्राप्त करना।
परन्तु प्रेम डगर का एक उसूल है। यह राह काँटों भरी होती है और उस पर नंगे पांव ही चलना होता है। अक्सर जग की बेरुखी इन बढ़ते पाँवों में बेड़ियाँ डालती ही है।इनको तोड़कर जो आगे बढ़ता है, वही तो प्रेम रस चखता है।
"है प्रेम नगर की कठिन डगर, काँटों का यहाँ बिछौना है।
कटकर, जलकर, सहकर, तपकर, तुझको उसका होना है।
अपना अस्तित्व मिटाकर तुझको, बीज सा गल जाना है।
पाने की छोड़ तमन्ना हर पल, खोना ही बस खोना है।"
इसलिए उठो, जागो और साधना करो। ऐसी साधना कि आपका लक्ष्य "परमात्मा" खुद आपके सामने आ जायें और आपका वरण करें।
*ओम् श्री आशुतोषाय नमः*
"श्री रमेश जी"
