*जगत में मनुष्य ने शरीर को तो जान लिया परंतु जीवन को भूल गया।*

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                     श्री आर सी सिंह जी 

बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सद्ग्रंथहिं गावा।।

साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक संवारा।।

सो परत्र दुख पावहिं सिर धुनि धुनि पछतावहिं।

कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं मिथ्या दोष लगावहिं।।'

(रा.च.मा.7/43)

  श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि, मनुष्य का तन हमें बहुत भाग्य से मिलता है। परंतु क्या हमने जाना है कि, इस तन को भाग्यशाली क्यों कहा गया है? कहते हैं कि यह तन देवताओं को भी दुर्लभ है। सभी धार्मिक ग्रंथों में इस तन की महिमा को गाया गया है। केवल यह तन ही ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। यह शरीर साधन है मुक्ति के द्वार का। परंतु मनुष्य ने मानव तन को प्राप्त करके भी, न तो प्रभु की प्राप्ति का ही यत्न किया और न ही परलोक को सँवारा।

 गोस्वामी जी कह रहे हैं कि अंत समय में वे मनुष्य दुखी होते हैं, सिर धुन धुन कर पछताते हैं और व्यर्थ ही कभी काल को, कभी कर्म को और कभी ईश्वर को दोष देते हैं। विचार करना है कि आज मानव तन की प्राप्ति के पश्चात हमने किसे जाना? केवल शारीरिक जरूरतों को पूरा करने में ही स्वयं को उलझा लिया। भूल गए कि इस शरीर की प्राप्ति का उद्देश्य क्या है क्योंकि प्राप्ति के हम आदि है। जो वस्तु हमें प्राप्त है उसके बारे में हम बेखबर रहते हैं। कहने का भाव है कि उपस्थिति के हम आदी हैं, अनुपस्थिति खटकती है। यही स्थिति इस शरीर के साथ भी है।

  आज हम कहते हैं कि, मानव शरीर मिला है परंतु विचार करना है कि इसकी प्राप्ति के पश्चात किया किया?

'आए जगत में क्या किया तन पाला कि पेट।

सहजो दिन धंधे गया रैन गई सुख लेट।।'

  संत सहजो बाई कहती हैं कि जगत में जन्म लेकर क्या किया? तन को पाला और खाकर पेट बढ़ाया। दिन तो संसार के कार्यों में गँवा दिया और रात सोकर।

  श्री गुरु नानकदेव जी कहते हैं कि, रात सोकर गँवा दी और दिन खाकर गँवा दिया। हीरे जैसी मानव तन को कौड़ी के भाव गँवा दिया। जगत में मनुष्य की यही स्थिति है कि उसने शरीर को तो जान लिया परंतु जीवन को भूल गया। यह अह्सास ही नहीं है कि जीवन क्या है?

  आज हम जिसे जीवन कहते हैं, वह तो पल - प्रतिपल मृत्यु की ओर बढ़ रहा है।

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

"श्री रमेश जी"

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