**गुरु की महिमा**

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                     श्री आर सी सिंह जी 

जो व्यक्ति सतगुरु न खोजा, जिसने सतगुरु की छाया में स्वांस न ली, जिसके हृदय में राम नाम न जगा, राम का सुमिरन न उठा,  उसका शरीर मरघट की भांति है। वह जिंदा लगता है लेकिन ज़िंदा है नहीं, बस एक चलती फिरती लाश है। उसके भीतर आत्मा नहीं बसती, उसे भूत समझें। भूत का अर्थ होता है अतीत, जो बीत गया।

  जिसका अतीत से नाता टूट जाता है, वो वर्तमान में ठहर जाता है और वर्तमान में जीता है। भविष्य भूत की अर्थात अतीत की छाया है, जिसका भूत गया अर्थात अतीत से जो टूटा उसे भविष्य की भी चिंता नहीं रह जाती। और तब जो बचता है वो है वर्तमान अर्थात हीरे की तरह चमकता हुआ यह क्षण और इसी क्षण में खुलता है फिर परमात्मा का द्वार। सतगुरु भी वर्तमान में ही होता है, इसीलिए जीवित सतगुरु का महत्व शास्त्रों में भी उल्लिखित है। जीवित सतगुरु ही भवसागर पार करा सकता है। कोई भी विचार यदि हम गौर करें तो पाएंगे कि या तो अतीत का होता है या फिर भविष्य का। क्योंकि वर्तमान का कोई विचार होता ही नहीं है, यह अकाट्य सत्य है। क्योंकि अभी और इसी क्षण आप स्व-परीक्षण करें तो पाएंगे कि इस समय आपके अंदर आने वाला विचार या तो अतीत का है या भविष्य का, वर्तमान का तो विचार हो ही नहीं सकता। वर्तमान विचारशून्य की अवस्था होती है, इसी विचारशून्यता को ध्यान कहते हैं। जिस क्षण हम निर्विचार होते हैं या जितनी अवधि में हम निर्विचार होते है, उतने समय हम ध्यान में होते हैं। वर्तमान निर्विचार होता है और ऐसा व्यक्ति, जो वर्तमान में है और निर्विचार है, ही सदगुरू कहलाता है। और ऐसे महापुरुष, जिसके भीतर शून्य है, के पास बैठना ही सत्संग कहलाता है। क्योंकि वर्तमान में जीने की कला एक महान कला है जो एक महान ही सीखा सकता है और वो महान आत्मा को ही सदगुरू कहते हैं। सतगुरु के भीतर शून्य उतरता है जो कि संक्रामक है। इसलिए सतगुरु के पास बैठते ही शिष्य शून्य का अनुभव करता है, यदि वह वास्तविक शिष्य है। यदि वह केवल अनुयायी होगा तो वह यह अनुभव ना कर सकेगा क्योंकि शिष्यत्व आवश्यक है इन शून्य कि तरंगो को महसूस करने के लिए। जिसके संग हम रहेंगे वैसे ही हम हो जाएंगे। बगीचे से गुजरो, फूल ना भी छूओ, तो भी फूल कि गंध पकड़ लेगी, मेंहदी पीसने भर से , चाहे हाथ में न भी लगाओ, हाथ रंग जाते हैं।

  सत्संग में बैठें, जहां फूल खिलें हो राम नाम के वहाँ बैठें, गंध पकड़ ही जाएगी। और यही वो गंध है जो सतगुरु नाम के फूल से निकलती है और हमें अपनी गंध के मूल स्त्रोत (आत्मा) की स्मृति दिलाती है और फिर उस तक पहुंचा देती है।

तुझसे ही होती है सुबह, तुझपे ही होती है शाम 

ए मेरे सतगुरु आपको कोटि कोटि प्रणाम॥

**ओम् श्री आशुतोषाय नमः**

"श्री रमेश जी"

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