**सगुनहिं अगुनहिं नहीं कछु भेदा**

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सीे सिंह जी।


                      श्री आर सी सिंह जी 

कई लोग ये कहते है कि हम तो साकार रूप ईश्वर को ही पूजते हैं तो कई लोग ये कहते है कि हम तो निराकार ईश्वर को ही पूजते हैं। लेकिन विचार अलग-अलग होने से शक्ति अलग नहीं हो जाएगी। जैसे-  पानी का बर्फ

बनना।

 अब इसमें कई लोग ये कहेंगे कि ये कैसा उदाहरण है, क्योंकि यहाँ पानी भी दिख रहा है और बर्फ भी दिख रहा है। लेकिन परमात्मा साकार रूप तो दिखते है लेकिन निराकार रूप नहीं दिखते हैं।

  जो ऐसा कहते है उनको अधूरा ज्ञान है क्योंकि निराकार परमात्मा दिखते नहीं ऐसा नहीं है। उस निराकार से ही साकार रूप लेकर भगवान धरती पर आते हैं। लेकिन वही निराकार रूप सभी प्राणियों के भीतर समाए हैं और जब तक वो शक्ति हम सब के भीतर है तभी तक हमारी स्वांश भी चल रही है। 

"सगुनहि अगुनहि नाहिं कछु भेदा।                              गावहीं मुनि पुरान बुध बेदा।

अगुन अरूप अलख अज जोई।                              भगत प्रेम बस सगुन सो होइ।"

    सगुन ओर निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है। मुनि, पुराण, पंडित (पंडित यहाँ उनके बारें में कहा गया है जो लोग  अपने भीतर उस निराकार परमात्मा का दर्शन किए हैं और उन्हें ही ब्रह्मज्ञानी कहा जाता है। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुन हो जाते है।

  कई लोग कहते हैं कि निराकार का कोई रूप है, तो वो कैसे दिख सकते हैं। लेकिन उनका उतर इस उदाहरण से दे रहे हैं (पानी का कोई रूप नहीं लेकिन फिर भी देख रहे हैं। पानी को जिसमें रखें चाहे वो बाल्टी हो या लोटा हो या जग सबमें अपना रूप बना लेता है) उसी तरह परमात्मा जो निराकार है वो जैसा चाहे वैसा रूप बना लेता है चाहे वो नरसिंह का अवतार हो या मछली का या अन्य का।

परमात्मा को देख नहीं सकते हैं ऐसा कभी नहीं सोचें, क्योंकि परमात्मा जिनकी हम पूजा करते हैं अगर उनको ही न देखें तो जीवन में कुछ नही है। लेकिन दुविधा यह है कि परमात्मा को कैसे और कहाँ देख सकते है। क्योंकि परमात्मा के साकार रूप के लीला के बारे में बहुत सुने हैं लेकिन वो साकार रूप कहाँ से आते हैं ये बहुत कम जानते है।

  परमात्मा के दो रूप बताए गए है पहला निर्गुण ओर दूसरा सगुन। जब गरुड़ जी काकभुसुंडि जी से प्रश्न करते है कि -- आपकी दृष्टि में निर्गुण सरल है या सगुन?

तब कागभुसिंडी जी कहते है-- 'निर्गुण रूप सुलभ अति सगुन न जानइ कोई।' निर्गुण रूप को जानना सरल है लेकिन सगुन रूप को जानना कठिन है। 

लेकिन यहाँ तो निर्गुण रूप को भी नहीं जान पा रहे हैं और इसी कारण सगुन को भी नहीं जान पा रहे है। यही बात अर्जुन के साथ घटी थी। अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण को मात्र सखा की दृष्टि से देखता था, लेकिन जब अपने भीतर उस निर्गुण रूप का दर्शन किया तब समझ पाया कि जो मेरे सामने खड़े हैं वो कोई साधारण नहीं बल्कि असाधारण हैं।

 लेकिन कैसे?

  निर्गुण रूप सभी प्राणीयों के भीतर है, बस हम देख नहीं सकते हैं, क्योंकि हमें वो 'विधि' नहीं पता।

 यही विधि जानने के लिए गरुड़ काकभुसिंडी जी के पास गया जब गरुड़  भ्रमित हुए । भगवान श्रीराम को नागपाश से बंधे हुए देखकर  अपनी समस्या का निवारण के लिए काक भुसिंडी जी के पास गए। बड़े-बड़े ज्ञानी-महात्मा, भक्त नहीं समझ पाए सगुन रूप लीला को तो हम कैसे समझ सकते हैं इतनी आसानी से?

और इसीलिए भूल से  या जानबूझकर सगुन रूप धारण किए निर्गुण को गलत कहते हैं उनपर कीचड़ उछालते है और इसका परिणाम पूरा प्रकृति को भुगतना पड़ता है। 

**ओम् श्री आशुतोषाय नमः**

"श्री रमेश जी"

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