सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
भोग मेघरूपी वितान में चमकती हुई बिजली के समान चंचल है और आयु अग्नि में तपाए हुए लोहे पर पड़ी हुई जल की बूंद के समान क्षणिक है। जिस प्रकार सर्प के मुंह में पड़ा हुआ भी मेढक मच्छरों को ताकता रहता है, उसी प्रकार लोग कालरूप सर्प से ग्रस्त हुए भी अनित्य भोगों को चाहते रहते हैं। कैसा आश्चर्य है कि शरीर के भोगों के लिए ही मनुष्य रात-दिन अति कष्ट सहकर नाना प्रकार की क्रियाएं करता रहता है। यदि यह समझ ले कि शरीर आत्मा से पृथक है, तो फिर भला पुरुष कैसे किसी भोग को भोग सकता है? पिता, माता, पुत्र, भाई, स्त्री और बन्धु बान्धवों का संयोग प्याऊ पर एकत्र हुए व्यक्तियों अथवा नदी प्रवाह मे इकट्ठी हुई लकड़ियों के समान चंचल है। यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि लक्ष्मी छाया के समान चंचल, यौवन जलतरंग के समान अनित्य है, स्त्री सुख स्वप्न के समान मिथ्या और आयु अत्यंत अल्प है; तथापि प्राणियों का इनमे कितना अधिक अभिमान है। यह संसार सदा रोगादि संकुल तथा स्वप्न और गन्धर्व नगर के समान मिथ्या है। मूढ़ जन ही इसे सत्य समझ कर इसका अनुकरण करते हैं। नित्य प्रति दिन और रात आते जाते रहते हैं, किंतु मूढ़ पुरुष भोगों के पीछे ही दौड़ता है, काल की गति को नही देखता। वृद्धावस्था सिंहनी के समान डराती हुई सामने खड़ी है और मृत्यु भी उसके साथ ही चलती हुई अन्त समय की प्रतीक्षा कर रही है। किन्तु देह में अहंभावना करने वाला जीव इस कृमि, विष्ठा और भस्मरूप शरीर को ही "मैं लोकप्रसिद्ध हूँ", ऐसा समझता है।
**ओम् श्रीआशुतोषाय नम:**
" श्री रमेश जी "
