**हमें प्रभु की लीला को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। निरंतर नि:स्वार्थ एवं निष्काम भाव से भक्ति करते रहना चाहिए।**

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।


एक बार सीता को खोजते हुए जब श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ पंपा सरोवर पहुंचे तो लक्ष्मण ने उनसे उस पवित्र सरोवर में स्नान करने की इच्छा प्रकट की। वे दोनों उस सरोवर में स्नान करने उतरे। उससे पहले उन्होंने अपने धनुष को वहाँ की गीली मिट्टी में गाड़ दिया। स्नान के उपरांत उन्होंने अपने अपने धनुष अपने कंधों पर रखे और आगे बढ़ गए। श्री राम को अपने दाहिने पैर पर जल की बूँदें टपकने का आभास हुआ। उन्होंने रुककर अपने पैरों की ओर देखा। लक्ष्मण चकित रह गए कि श्री राम का पैर रक्त-रंजित था।उन्होंने श्री राम के चरण को अपने उत्तरीय से पोंछा और घाव खोजना चाहा। परंतु कहीं कोई घाव नहीं था।तभी श्री राम ने देखा कि रक्त की एक बूंद उनके धनुष के सिरे से उनके पैर पर टपकी। उन्होंने अपने धनुष का निरीक्षण किया तो पाया कि उसका वह भाग, जो उन्होंने गीली भूमि मे गाड़ा था, रक्त से सना हुआ है। वे लक्ष्मण से बोले, 'लक्ष्मण, जहाँ हमने ये धनुष गाड़े थे, हमें वापिस उस स्थान पर लौटकर इसका कारण खोजना होगा।'

   वहाँ जाकर श्री राम ने देखा कि जहाँ उन्होंने अपना धनुष गाड़ा था, वहाँ एक रक्त- रंजित मेंढक अपनी अंतिम साँसें ले रहा था। श्री राम ने उस मेंढक को उठाया और करुणा भरे स्वर में बोले, 'भाई, जब मैंने धनुष गाड़ा, तब तुमने मुझे क्यों नहीं पुकारा?'

   'प्रभु!', मेंढक दयनीय रूप से मुस्कुराकर बोला, 'जब मुझे साँप खाने आता है तो मैं चिल्लाता हूँ कि हे राम! रक्षा करो! अब जब राम ही मुझे मारने पर आ गए हैं तो मैं किसे रक्षा के लिए पुकारूँ? जिसे राम मारने की ठान लें, उसके लिए तो फिर किसी लोक में कोई ठौर नहीं है।'

   अतः भगवतजनो, हमें प्रभु की लीला को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए।निरंतर नि:स्वार्थ एवं निष्काम भाव से भक्ति करते रहना चाहिए। हम मानव कर्म करते हैं लेकिन प्रभु लीला करते हैं। और प्रभु की हर लीला हमारे लिए कल्याणकारी होता है।

**ओम् श्री आशुतोषाय नमः**

"श्री रमेश जी"

Post a Comment

Previous Post Next Post