श्रीमद्भागवतमहापुराण में श्रीशुकदेव जीने राजा परीक्षित सेकहा–राजन्!जिस प्रकार स्वप्न में देखे जाने वाले पदार्थों केसाथस्वप्न-द्रष्टाका कोई संबंध नहीं होता,उसी प्रकार शरीरसे अलग जीवात्मा का मायाकेबिना दिखलाई देने वाले पदार्थों के साथ कोई संबंध नहीं हो सकता। अनेक रुप वाली माया केकारण
वह जीवात्मा एक होते हुए भी अनेक प्रतीत होता है और जब वह जीवात्मा माया के सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण में रम जाता है, एकरुपता स्थापित कर लेता है,तब’यह मैं हूं, यह मेरा है ‘इस तरह मानने लगता है, कहने लगता है। परंतु जब वह जीवात्मा माया से अलग अपने
अनन्त स्वरुप में मोह रहित होकर रमण करने लगता है,तब यह’मैं,मेरा’भाव छोड कर पूरा उदासीनतथासतोगुण,रजोगुण और तमोगुण से अलग हो जाता है।
–द्वितीयस्कंध,अध्याय९,श्लोक१-३
प्रस्तुतकर्ता
डां.हनुमानप्रसादचौबे
गोरखपुर।
