**भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है, जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है।**

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

जिंदगी के असली मजे उनके लिए नहीं हैं, जो फूलों की छाँव के नीचे सोते हैं। बल्कि फूलों की छाँव के नीचे अगर जीवन का कोई स्वाद छिपा है, तो वह भी उन्हीं के लिए है, जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं। पानी में जो अमृत वाला तत्व है, उसे वह जानता है जो धूप में खूब सूख चुका है।

सुख देने वाली चीजें पहले भी थीं और अब भी हैं; फर्क यह है कि जो सुखों का मूल्य पहले चुकाते हैं और उनके मजे बाद मे लेते हैं, उन्हें स्वाद अधिक मिलता है। जिन्हें आराम आसानी से मिल जाता है, उनके लिए आराम ही मौत है।

जो लोग पाँव भीगने के खौफ से पानी से बचते रहते हैं, समुद्र में डूब जाने का खतरा उन्हीं के लिए है।लहरों में तैरने का जिन्हें अभ्यास है, वे मोती लेकर बाहर आएंगे।

    चाँदनी की ताजगी और शीतलता का आनंद वह मनुष्य लेता है, जो दिनभर धूप में थककर लौटा है।

   भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है, जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है। जीवन का भोग त्याग के साथ करें। यह केवल परमार्थ का ही उपदेश नहीं है, क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन से जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिलता।

  महाभारत में अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे।मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई; क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, वनवास के जोखिम को पार किया था।

    जिंदगी की दो सूरतें हैं-- एक तो यह कि आदमी बड़े से बड़े मकसद के लिए कोशिश करे। दूसरी यह है कि वह गरीब आत्माओं की हमजोली बन जाए, जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दुख पाने का ही संयोग है।

  साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है।साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है।

   जिंदगी से, अंत में, हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं। यह पूँजी लगाना जिंदगी के संकटों का सामना करना है।

  ओ जीवन के साधकों!अगर किनारे की मरी हुई सीपियों से ही तुम्हें संतोष हो जाए, तो समुद्र के अंतराल में छीपे हुए मौत्तिक कोष को कौन बाहर लाएगा?

   दुनिया में जितने भी मजे बिखेरे गए हैं, उनमें तुम्हारा भी हिस्सा है। वह चिज भी तुम्हारी हो सकती है, जिसे तुम अपनी पहुंच के परे मानकर लौटे जा रहे हो।

 'रामधारी सिंह दिनकर'

**ओम् श्री आशुतोषाय नम:**

Post a Comment

Previous Post Next Post